नगरी अंधेरी है ये मनवा जिंदगी
जलाले जोत तू हरि नाम की
डोली उठेगी तेरी लाश की भी
होगी जब तैयारी श्मशान की
नादान हैं हम , ठोकर लगते हैं जागते हैं ।
फिर सो जाते हैं , दुनिया में खो जाते हैं ।
सच से मुंह मोड़कर, सच्चाई से रिश्ता तोड़कर
कृपा निधान शक्ति से , दूर हो जाते हैं ।
विकारों की माया है जो आगे चलने नहीं देती ।
विकृतियों का सूरज ढलने नहीं देती।
फिर भी गिर गिर कर हमें सम्भलना होगा ।
रुक रुक कर ही बेशक , सच्ची राह पर चलना होगा ।
क्योंकि दो दिन का ही है ये जीवन का मेला ।
आना अकेला और फिर जाना अकेला ।
यही ग्रंथों और अनुभवों का सार है ।
वही तर गया जीवन में , भक्ति और आनंद जिसका परिवार है ।
नहीं तो जानवर सी तो जिंदगी पहले भी थी आगे भी होगी ।
उसका जीना तो फिर समझो बेकार है ।
उसका जीना तो फिर समझो बेकार है ।
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